Monday, 5 November 2012

स्वामी विवेकानंद-संक्षिप्त जीवनी (हिंदी)



स्वामी विवेकानंद-संक्षिप्त जीवनी (हिंदी)

भारत की पावन माती में,
हुए अनेकों संत l
एक उन्ही में उज्जवल तारा,
हुए विवेकानंद ll

भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत महापुरुषों में स्वामी दयानंद तथा स्वामी विवेकानंद का अन्यतम स्थान है धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में नवोदय के जिस माहित्य प्रयत्न का  सूत्रपात  आधुनिक भारत के पिता राजा राममोहन राय ने किया था उसे ही आगे बढाने एवं प्रगति देने का महत्वपूर्ण कार्य आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद ने किया परमहंस रामकृष्ण के जीवन एवं साधना से प्रेरित स्वामी विवेकानंद भी यधपि पुनर्जागरण के सूत्रधार महापुरुषों में ही परिगणित होते है तथापि उनकी वैचारिक प्रक्रिया राजाराममोहन राय, दयानंद के केशवचंद्र सेन आदि संस्कारक वर्ग में गिने जाने वाले उन व्यक्तियों से मूलत: भिन्न है, जो भारत के दिव्य अतीत से प्रेरणा लेते हुए भी धर्म, समाज एवं संस्कृति के क्षेत्र में चतुर्मुखी क्रांति के हामी थे, तथा जिनका यह निश्चित विश्वास था कि धार्मिक एवं सामजिक रुढियों एवं कदाचारों का समर्थन नहीं किया जा सकता l इसके विपरीत स्वामी विवेकानंद यदा, कदा यत्रतत्र वैचारिक क्रांति का उद्घोष करते हुए भी दबी जबान से पुराणी रुढियों मिथ्या विश्वासों एवं समाज में व्याप्त बुराईयों का समर्थन करते हुए प्रतीत होते है l







भारतीय पुनर्जागरण के महान सेवक स्वामी विवेकानंद का जन 12 जनवरी सन 1863 में कल्केज में एक सम्मानित परिवार में हुआ था l इनकी माता आध्यात्मिकता में पूर्ण विशवास करती थी परन्तु इनके पिता स्वतंत्र विचार के गौरवपूर्ण व्यक्ति थे l इनका पहला नाम नरेन्द्रनाथ था, शारीरिक दृष्टि से नारेंद्नाथ हष्ट-पुष्ट व् शौर्यवान थे l उनका शारीरिक गठन और प्रभावशाली मुखाकृति प्रत्येक को अपनी और आकर्षित कर लेती थी l रामकृष्ण के शिष्य बन्ने से पूर्व वे कुश्ती, घुन्सेबाजी, घुड़सवारी और तैरने आदि में भी निपुणता प्राप्त कर चुके थे l उनकी वृद्धि विलक्षण थी, जो पाश्चात्य दर्शन में ढाली गयी थी l उन्होंने देकार्त, ह्य म, कांट, फाखते, स्प्नैजा, हेपिल, शौपेन्हावर, कोमट, डार्विन और मिल आदि पाश्चात्य दार्शनिको कि रचनाओं को गहनता से पढ़ा था l इस अध्ययनों के कारण उनका दृष्टिकोण आलोचनात्मक और विश्लेष्णात्मक हो गया था l प्रारंभ में वे ब्रह्मसमाज कि शिक्षाओं से प्रभावित हुए, परन्तु वैज्ञानिक अध्ययनों के कारण ईश्वर से उनका विश्वास नष्ट हो गया था l पर्याप्त काल तक वे नास्तिक बने रहे और कलकत्ता शहर में ऐसे गुरु कि खोज में घूमते रहे जो उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान करा सके l

रामकृष्ण परमहंस से भेंट 

जब विवेकानंद परमहंस से मिले तो उनकी आयु केवल 25 वर्ष की थी l परमहंस से उनका मिलना मानो दो विभिन्न व्यक्तियों का मिलन प्राचीन तथा नविन विचारधारा का मिलन था l परमहंस की अध्यात्मिक विचारधारा ने विवेकानंद को विशेष रूप से प्रभावित किया l परमहंस से मिलने पर विवेकानंद ने उनसे प्रशन किया कि क्या तुमने ईश्वर को देखा है ? परमहंस ने मुस्कुराते हुए कहा हाँ देखा है l मैं इसे देखता हूँ, जैसे मैं तुम्हे देखता हूँ l इसके पश्चात परमहंस ने विवेकानंद का स्पर्श किया l इस स्पर्श से विवेकानंद को एक झटका सा लगा और उनकी आंतरिक आत्मा चेतन हो उठी l अब उनका आकर्षण परमहंस के प्रति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा l अब उन्होंने रामकृष्ण के आगे अपने को पूर्णरूप से अर्पित कर दिया और उनके शिष्य बन गए l

विश्वधर्म सम्मलेन में भाग लेना 

इन दिनों हिन्दू धर्म कि पाश्चात्य विचारक कड़ी आलोचना करते थे जिससे विवेकानंद के ह्रदय को गहरा आघात लगता था l इन आलोचनाओं का प्रत्युतर देने के लिए उन्होंने निश्चय किया कि संसार के सामने भारत की आवाज बुलंद की जाय l 
31 मई सन 1893 में वे अमेरिका गए और 11 सितम्बर, सन 1893 शिकागो में उन्होंने 'विश्वधर्म संसद' में अत्यंत प्रतिभाशाली सारगर्भित भाषण दिए l विवेकानंद का भाषण संकीर्णता से परे सार्वदेशिकता और मानवता से ओत-प्रोत था l वहां की जनता उनकी वाणी को सुनकर मुग्ध हो जाती थी l विवेकनद के शब्दों में 'जिस प्रकार साड़ी धाराएँ अपने ताल को सागर में लाकर मिल देती है, उसी प्रकार मनुष्य के सारे धर्म ईश्वर की और ले जाते है l

” विवेकनद की प्रशंसा में "न्यूयार्क क्रिटिक" (NewYork Critique) ने लिखा "वे ईश्वरीय शक्ति प्राप्त वक्ता है l उनके सत्य वचनों की तुलना में उनका सुन्दर बुद्धिमत्तापूर्ण चेहरा पीले और नारंगी वस्तों में लिप्त हुआ कम आकर्षक नहीं l”

न्यूयार्क हेरोल्ड (Newyork Herald) ने अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा –“विवेकानंद निश्चय ही धर्म-परिषद् में सबसे महान व्यक्ति है l उनके प्रवचन सुनने के पश्चात हम अनुभव करते है कि इस प्रकार विद्वान देश को मिशनरी भेजना हमारा कितना मूर्खतापूर्ण कार्य है l स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों के सार पर टिपण्णी करते हुए रोमारोला ने लिखा –“संसार में कोई भी धर्म मनुष्यता कि गरिमा को इतने ऊँचे स्वर में सामने नहीं लाता जैसा कि हिन्दू धर्म लाता है l

” प्रोफ़ेसर राईट (Prop. Wright) विवेकनद की प्रतिभा से अत्यधिक प्रभावित हुए उन्होंने लिखा - "स्वामी विवेकनद का एक ऐसा व्यक्तित्व है कि अगर इनके व्यक्तित्व कि तुलना विश्विद्यालय के समस्त प्रोफेसरों के ज्ञात एकत्र करके कि जाय तब भी वे अधिक ग्यानी सिद्ध होंगे l” स्वामी विवेकानंद ने फरवरी, 1896 में न्यूयार्क अमेरिका में वेदांत समाज (Vedanta Society) की स्थापना की l

यूरोप का भ्रमण - अमेरिका से स्वामी जी 15 अप्रैल 1897 को इंग्लैण्ड गए l यह सत्य है की वे भारत में विदेशी शासन से अत्यधिक क्षुब्ध थे l परन्तु मानवता प्रेमी होने के कारण उनके ह्रदय में ब्रिटेन कि जनता के विरुद्ध किसी भी प्रकार के वैमनस्य की भावना नहीं थी l ब्रिटिश की जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने का कि "आप लोगो में से कोई भी ऐसा नहीं है जो ब्रिटिश जनता से उतना प्रेम करता है, जितना कि मैं करता हूँ l इंग्लैण्ड से वे फ़्रांस, स्विट्जरलैंड और जर्मनी गए l जिन-जिन देशों में वे गए वहां उन्होंने भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म के गौरव की अमित छाप विदेशी विद्वानों पर डाली l लगभग चार वर्ष तक विदेशों में रहकर वे भारत लौट आये l

सम्बंधित: Chicago Speech of Swami Vivekananda

रामकृष्ण मिशन की स्थापना 

1899 में उन्होंने अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण सेवाधर्म की स्थापना की l कलकत्ता के निकट वैलूर व् अल्मोड़ा के निकट मायावती हिमालयाज के मैथ इसके प्रधान केंद्र हैं l इन मठों में उन्होंने सन्यासियों को मिशन के कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया l इसी समय रामकृष्ण का लोक सेवा कार्यक्रम आरम्भ किया गया l मैथ के साधू सर्वप्रथम संसार त्याग करके अध्यात्मिक जीवन व्यतीत करते थे तथा पीड़ित मानवता की सेवा में अपना सारा समय लगाते थे l इस समय ही भारत में भीषण अकाल पड़ा l अकाल पीड़ितों की मिशन के साधुओं ने हृदय से सेवा की l 4 जुलाई सन 1902 में उनका स्वर्गवास हो गया l विवेकानंद जी की प्रमुख रचनाये (1) ज्ञान योग, (2) राजयोग, (3) भक्ति योग, और (4) कर्मयोग है l

स्वामी विवेकानंद के राजनैतिक विचार 

यह सत्य है कि विवेकानंद राजनैतिक आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे इस पर भी उनकी इच्छा थी कि एक शक्तिशाली बहादुर और गतिशील राष्ट्र का निर्माण हो l वे धर्म को राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का स्थायी स्वर मानते थे l हिंगल के समान उनका विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक तत्व कि अभिव्यक्ति है l उदाहरण के लिए धर्म भारत के इतिहास का एक प्रमुख निर्धारक तत्व रहा है l स्वामी विवेकानंद शब्दों में "जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है वैसे ही हर रह्स्त्र के जीवन में एक प्रधान तत्व हुआ करता है l अन्य सभी तत्व इसी में केन्द्रित होते है प्रत्येक राष्ट्र का अपना अन्य सब कुछ गौण है l” भारत का तत्व धर्म है l समाज-सुधार तथा अन्य सब कुछ गौण है l” अन्य शब्दों में विवेकानंद ने राष्ट्रवाद के धार्मिक सिंद्धांत का प्रतिपादन किया l उनका विशवास था कि धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का प्रमुख आधार बनेगा l उनके विचार में किसी राष्ट्र को गौरवशाली, उसके अतीत कि महत्ता की नींव पर ही बनाया जा सकता है l अतीत की उपेक्षा करके राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता l वे राष्ट्रीयता के अध्यात्मिक पक्ष में विश्वास करते थे उनका विचार था कि भारत में स्थायी राष्ट्रवाद का निर्माण धार्मिकता के आधार पर ही किया जा सकता है l
विवेकानंद का दृढ मत था कि आध्यात्मिकता के आधार पर ही भारत का कल्याण हो सकता है उन्होंने अपने एक व्याख्यान में स्पष्ट शब्दों में कहा था l “भारत में विदेशियों को आने दो, शस्त्रबल से जितने दो, किन्तु हम भारतीय अपनी आध्यात्मिकता से समस्त विश्व को जित लेंगे l प्रेम, घृणा पर विजय प्राप्त करेगा l हमारी अध्यात्मिक पश्चिम को जीतकर रहेगी l…. उदबुद्ध और सजीव राष्ट्रीय जीवन कि शर्त ही यह है कि हम दर्शन और आध्यात्मिकता से विश्व पर विजय प्राप्त करे l”

स्वतन्त्रता को महत्व देना

राज दर्शन के क्षेत्र में दूसरा महतवपूर्ण अनुदान उनकी स्वतंत्रता की कल्पना है l अखिल ब्रहमांड में स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए प्रयास किया जा रहा है l स्वतंत्रता अध्यात्मिक प्रगति का मूल है l स्वतंत्रता प्रकाशस्तंभ विकास की पहली शर्त है l विवेकानंद के स्वतन्त्रता विषयक सिद्धांत अत्यंत व्यापक थे l उनका मत था की समस्त विश्व अपनी अनवरत गति के माध्यम से मुख्यत स्वतंत्रता ही खोज रहा है l मनुष्य का विकास स्वतंत्रता के वातावरण में ही संभव है उनके शब्दों में - "शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक स्वतंत्रता की और अगसर होना तथा दूसरों को उसकी और अगसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा पुरुष्कार है l जो सामजिक नियम इस स्वतंत्रता के विकास में बाधा डालते है वे हानिकारक है, और उन्हें शीघ्र नष्ट करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए l उन संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाए जिनके द्वारा मनुष्य स्वतंत्रता के मार्ग पर अग्रसर होता है l

शक्ति सृजन और निर्भयता का सन्देश देना

विवेकानंद की सबसे प्रमुख दें भारतियों को शक्ति सृजन और निर्भयता का सन्देश देना था l वे अत्यंत साहसी, निर्भीक और शक्तिशाली व्यक्ति थे l जब देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और भारतीय जन मानस हीनता तथा भी की भावनाओं से पूर्णतया: ग्रस्त था उस समय विवेकानंद ने सुप्त तथा पददलित भारतीय जनता को शक्ति के अभाव में न तो हम व्यक्तिगत अस्तित्व को स्थिर रख सकते है और न ही अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते है l” उनके अनुसार "शक्ति ही धर्म है l … मेरे धर्म का सार शक्ति है l जो धर्म हृदय में शक्ति का संचार नहीं करता वः मेरी दृष्टि में धर्म नहीं है, शक्ति धर्म से बड़ी वास्तु है और शक्ति से बढ़कर कुछ नहीं l” स्वामीजी का कथन था की प्रत्येक भारतवासी को ज्ञान, चरित्र तथा नैतिकता की शक्तियों का सृजन करना चाहिए l किसी राष्ट्र का निर्माण शक्तियों से होता है अत: व्यक्तियों को अपने पुरुश्तव, मानव गरिमा तथा स्वाभिमान आदि श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहिए l
विवेकानंद ने शक्ति के सृजन के साथ भारतियों को निर्भय रहने का भी सन्देश दिया l उन्होंने निर्भयता के सिद्धांत को दार्शनिक आधार पर उचित ठहराया l उनकामत था कि आत्मा का लक्षण सिंह के समान है अत: मनुष्य को भी सिंह के समान निर्भय होकर आचरण करना चाहिए उन्ह्योने भारतियों को संबोधित करते हुए कहा -- "हे वीर, निर्भीक बनो, सहस धारण करों, इस बात पर गर्व करो कि तुम भारतीय हो और गर्व के साथ घोषणा करों, "मैं भारतीय हूँ व् प्रत्येक भारतीय मेरा भी है" उनके यह शब्द सोये हुए भारतवासियों को जगाने के लिए अत्यंत सामयिक और महतवपूर्ण थे I जिस समय देश कि जनता निराशा में डूबी दयनीय जीवन व्यतीत कर रही थी उस समय शक्ति और निर्भीकता का सन्देश देना उनकी प्रखर बुद्धि का एक उज्व्लंत उदहारण है l

देश भक्ति की प्रेरणा देना 

स्वामी विवेकानंद में राष्ट्र भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी l वे भारतवासियों को भी मातृभूमि के लिए अपना सब कुछ लुटाने के लिए कहते है, उनका कहना था--"मेरे बंधू बोलो " भारत की भूमि मेरा परम स्वर्ग है, भारत का कल्याण मेरा कर्त्तव्य है, और दिन रात जपो और प्रार्थना करो, हे गोरिश्वर, हे जगज्जनी, मुझे पुरुष्तव प्रदान करो l” अन्य स्थल पर उन्होंने कहा की -- "अगले पचास वर्षों तक भारत माता को छोड़कर हमें और किसी का ध्यान नहीं करना है I डा. वर्मा के शब्दों में "बंकिम की भांति विवेकानंद भी भारत माता को एक आराध्य देवी मानते थे, और उसकी देदीप्यमान प्रतिभा की कल्पना और स्मरण से उनकी आत्म जगमगा उठती थी l यह कल्पना कि भारत देवी कि माता की दृश्यमान विभति है, बंगाल के राष्ट्रवादियों और आतंकवादियों की रचनाओं तथा भाषणों के आधार्बुत धरना रही है उनके लिए देश भक्ति एक शुद्ध और पवित्र आदर्श था l”

विवेकानंद का सामजिक दर्शन 

स्वामी विवेकानंद मुख्य रूप से हमारे सामने एक अध्यात्मवादी और हिन्दू-धर्म के उद्धारक तथा व्यखता के रूप में आते है, परन्तु सामजिक क्षेत्र में भी उन्होंने जो चिंतन कर अपने चिचार प्रकट किये उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती l
संकीर्ण -जातिवादी का खंडन - यधपि विवेकानंद भारत की प्राचीन संस्कृति के महान पुजारी थे और उनका मजबूती से प्रचार भी करते थे, परन्तु साथ ही उन्होंने प्रचलित रुढीवाधिकता और संकीर्णता के विरुद्ध एक विध्वंसकारी योद्धा के समान संघर्ष भी किया था l वे तत्कालीन जाती-प्रथा के कटु आलोचक थे l स्वामी विवेकानंद जी यह मानते थे की आधुनिक युग में वर्ण -व्यवस्था सामजिक अत्याचारों को बढ़ावा देने वाली है l इस वर्ग एवं जाती-व्यवस्था ने भारतीय समाज को खोखला कर दिया है वे अधिकारवाद के विरोधी थे l सर्वप्रथम उन्होंने परम्परावादी ब्राह्मणों के एकाधिकारवाद पर आघात किया l

अस्पर्शयता की निंदा

अस्पर्श्यता भारतीय समाज का कोढ़ रहा है l विवेकानंद ने स्पर्श्यता का घोर विरोध किया l उनका कहना था कि ईश्वर कि दृष्टि में सब मनुष्य समान है अत: किसी विशेष जाती या वर्ग को हिन् दृष्टि से देखना अत्यंत क्रूर दुःख का विषय है कि उच्च जातियों ने अछुतों या शूद्रों के साथ अत्यंत क्रूर और भेदभाव पूर्ण व्यवहार करके उनका दमन किया है l अछुतों को वे समान अधिकार मिलने चाहिए जिनका कि उपभोग उच्च जातियां करती है l उन्होंने रसोईघर और पतीली-कधी को निरर्थक पंथ का मखौल उदय और कहा कि यह सब व्यर्थ कि बाते है l ईश्वर के बनाये हुए सभी जिव समान है, फिर कोई अस्पर्श क्यों माना जाय l

कर्त्तव्य पालन और गृहस्थ जीवन में आस्था

प्राय: लोग अपने अधिकारों की मांग पर ही बल देते है और कर्तव्यों की उपेक्षा करते है l इस प्रकार की मांगे समाज में संघर्ष को जन्म देती है l विवेकानंद ने अधिकारों की अपेक्षा कर्त्तव्य पालन पर विशेष बल दिया l उनका कथन था प्रत्येक देशवासी को आपके कर्तव्यपालन की और विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए l
स्वामी जी स्वय भिक्षु और संस्यासी थे परन्तु गृहस्थ जीवन में उनकी गहरी आस्था थी l उन्होंने निष्काम भाव से अपना गृहस्थ कर्त्तव्य पालन करने वाले व्यक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया l


भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था

स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति के महान पुजारी थे l उनका कथन था कि देश के बुद्धि जीवियों को पाश्चात्य संस्कृति कि चमक दमक में भारतीय संस्कृति को नहीं भूल जाना चाहिए l

सामजिक एकता पर बल 

स्वामी जी का विचार था कि भारतवासियों को अपनी एकता को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए l यदि देशवासी ब्राह्मण, अब्राह्मण, द्रविड़-आर्य आदि विवादों में ही पड़े रहेंगे तो उनका कल्याण नहीं हो सकेगा l

कर्म करने की प्रेरणा देना

स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करने के पश्चात् देखा कि देश की अधिकांश निर्धन जनता अत्यंत दरिद्रता का जीवन व्यतीत करती है l उन्होंने यह भी अनुभव किया कि इस व्यापक दरिद्रता और निर्धनता का मूल कारण यहाँ के निवासियों का आलसी और भाग्यवादी होना है l


स्त्रियों के उत्थान में विश्वास 

स्वामी विवेकानंद ने भारत कि स्त्रियों कि दीन-हीन दशा को देखा और उन्होंने उनके अधिकारों तथा उनके सुधार के लिए अपनी आवाज बुलंद की l उनका कथन है कि वैदिककाल में भारतीय स्त्रियाँ पुरुषों के समक्ष समस्त अधिकारों का उपभोग करती थी तथा उन्हें प्रत्येक प्रकार के ज्ञान प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी l परन्तु यह दुःख: का विषय है कि आज भारत कि नारी केवल उपभोग की वास्तु मात्र बनकर रह गयी है l पुरुष उसे केवल दासी मात्र समझते है परन्तु यदि हमने स्त्रियों की दशा को नहीं सुधार तो राष्ट्र कल्याण की कल्पना करना पूर्णतया: व्यर्थ है l


धर्म की सच्ची व्याख्या और आडम्बरों का विरोध 

विवेकानंद के अनुसार मानवता या दरिद्रों की सेवा करना ही मानव का सच्चा धर्म है जो निर्धनों की उपेक्षा करके पूजापाठ में लीन रहते हैं उन्हें धार्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता l उनका कथन था -- "हम पूजा के इस ताम-झाम को यानी देवमूर्ति के सामने शंख फूंकना, घंटा बजाना और आरती करना छोड़ दें l हम शास्त्रों के पठान-पाठन और व्यक्तिगत मोक्ष के लिए सब तरह की साधनाओं को छोड़ दें और गावं-गांवं जाकर गरीबों की सेवा, गरीबों पीड़ितों की सेवा करने का बीड़ा उठा लें l” स्वामीजी सच्चे धर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा "धर्म न तो पुस्तों में हैं, न धार्मिक सिद्धांतों में l वह केवल अनुभूति में निवास करता है l धर्म अंध-विश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यंत स्वाभाविक तत्व है l
धार्मिक एकता पर बल -- स्वामी विवेकानंद ने धार्मिक एकता पर विशेष बल दिया l यह सत्य है कि विवेकानंद हिन्दुतत्व में गहन आस्था रखते थे परन्तु साथ ही इस्लाम और ईसीयत के प्रति उनके ह्रदय में किसी भी प्रकार कि घृणा और दोष नहीं था l वे परमहंस के समान समस्त धर्मों कि एकता में और समन्वय में विश्वास करते थे l उनका कहना था हिन्दुत्व और इस्लाम में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है l
धार्मिक एकता पर बल देते हुए शिकागो के प्रसिद्ध विश्वधर्म सम्मेलन में अपने विचार प्रकट करते हुए विवेकानंद ने कहा था कि "धार्मिक एकता कैसे हो, इस बात कि यहाँ पर्याप्त चिकित्सा हुई है .....किन्तु, इतना कहना आवश्यक है कि यदि कोई व्यक्ति यह समझता हो कि धार्मिक एकता का मार्ग एक धर्म की विजय और बाकी धर्मों का विनाश है, तो मैं उससे निवेदन करूँगा की बंधू तुम्हारी आशा पूरी नहीं होगी l
पूर्व और पश्चिम के समन्वय पर बल -- स्वामी विवेकानंद संकीर्ण विचार धारा से मुक्त अत्यंत उद्दार विचार के संत थे l वे इस बात को जानते थे कि कि अनेक ऐसी बात है जो पाश्चात्य संस्कृति से ग्रहण कि जा सकती है और उनके अपनाने से भारतवासियों का कल्याण हो सकता है l पश्चिम का समाज रुढियों और अंधविश्वासों से युक्त है तथा वहां के निवासियों ने अत्यंत श्रम के साथ भौतिक और वैज्ञानिक प्रगति की है l उन्हें अपने जातीय अहंकार का परित्याग करके अपने अन्दर आध्यात्मिकता का विकास करना चाहिए l कोरी भौतिक समृद्धि ही पश्चिम का कल्याण नहीं कर सकती l इस क्षेत्र में वे भारत से बहुत कुछ सीख सकते है l


भारत के योरोपिकरण का विरोध 

विवेकानंद पश्चिम की अच्छी बाते ग्रहण करने के तो पक्ष में थे परन्तु पश्चिम की आँख मींचकर नक़ल करने के वे पूर्णतया: विरोधी थे l उनका कथन था भारत को पश्चिम के अन्धाधुनिकरण की प्रेरणा देना पूर्णतया: मूर्खतापूर्ण होगा उनके शब्दों में--"हमें अपने प्रकृति के स्वभाव के अनुसार विकसित होना चाहिए l विदेशी समाजों की कार्य प्रणालियों को अपनाना व्यर्थ है l

विवेकानंद जी भारतवासियों में एक नविन उत्साह तथा चेतना का संचार करके राष्ट्रीय जागरण में जो योगदान किया वह भारत के इतिहास में अमर रहेगा श्री दिनकर के शब्दों में विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति की जो सेवा की उसका मूल्य नहीं चुकाया जा सकता l
संसार के सन्मुख भारतीय संस्कृति और सभ्यता की श्रेष्ठता की सर्वोच्चता का डंका बजने का श्री विवेकानंद को ही जाता है अपनी ओजस्वी वाणी के द्वारा सोये हुए हिन्दुओं में स्वाभिमान और आत्मगौरव की भावना का जो संचार किया वह उपेक्षित नहीं किया जा सकता l


संत विवेकानंद अमर तुम,
अमर तुम्हारी पवन वाणी l
तुम्हे सदा ही शीश नवाते,
भारत का प्राणी –प्राणी ll





This article is written by Sumit Tripadhi.


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